Islamic NATO Formation: मिडिल ईस्ट यानी पश्चिम एशिया हमेशा से भू-राजनीतिक हलचल का गढ़ रहा है. लेकिन सितंबर की शुरुआत में जो हुआ, उसने खेल ही बदल दिया. इजरायल ने कतर की राजधानी दोहा पर हमला किया. टारगेट था हमास के नेता, लेकिन असर सीधा खाड़ी देशों की सुरक्षा सोच पर पड़ा. दशकों से ये देश मानकर बैठे थे कि अरबों डॉलर के हथियार, अमेरिकी एयरबेस और वॉशिंगटन की दोस्ती उन्हें सुरक्षित रखेगी. लेकिन इजरायल के मिसाइलों ने ये भ्रम तोड़ दिया. अब सवाल है कि क्या अरब और मुस्लिम देश सच में मिलकर एक “इस्लामिक NATO” बना पाएंगे?
दोहा पर हमला और अरबों की नाराजगी
शुरुआत हुई सितंबर की पहली हफ्ते में, जब इजरायल ने दोहा में हमला कर दिया. यह वही दोहा है जहां अल उदेइद एयरबेस मौजूद है, अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य ठिकाना, जहां 10,000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं. यानी अमेरिका की सुरक्षा गारंटी भी बेकार निकली.
15 सितंबर को दोहा में समिट हुई. यहां ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियन ने इजरायल की निंदा करते हुए कहा कि अब वक्त आ गया है कि मुस्लिम देश मिलकर एक सैन्य गठबंधन बनाएं. उनकी बातों में विरोधाभास था क्योंकि ईरान ने खुद कुछ महीने पहले कतर पर मिसाइलें दागी थीं. फिर भी इस बार सारे अरब देश एक बात पर सहमत दिखे. यह हमला ‘लाइन क्रॉस’ कर गया.पढ़ें
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Islamic NATO Formation in Hindi: ‘इस्लामिक NATO’ का ख्वाब
हमले के बाद पुराना आइडिया फिर चर्चा में आया कि क्या मुस्लिम देशों का कोई NATO जैसा संगठन बने? मिस्र चाहता है कि काहिरा में जॉइंट अरब कमांड बने. पाकिस्तान, जो अकेला मुस्लिम परमाणु शक्ति है, कह रहा है कि एक टास्क फोर्स बने जो इजरायल पर नजर रखे और ‘डिटरेंट स्ट्रैटेजी’ बनाए. तुर्की, सऊदी अरब और कतर भी अब इस दिशा में सोच रहे हैं.
इतिहास बताता है कि यह ख्वाब पहले भी कई बार टूटा है. सुन्नी-शिया तनाव जो हमेशा सऊदी अरब और ईरान एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते. राष्ट्रीय स्वार्थ भी मिस्र को तुर्की से दिक्कत है, तो UAE को कतर की नीतियां खटकती हैं. कमांड का झगड़ा ये भी एक बड़ा कारण है कि कोई नहीं चाहता कि उसकी सेना पर दूसरे देश का हुक्म चले. यही वजह है कि अब तक हर बार यह ‘इस्लामिक NATO’ का सपना अधूरा रह गया.
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अमेरिका का छाता अब छलनी
हमले के बाद सबकी निगाहें अमेरिका पर थीं. लेकिन ट्रंप प्रशासन ने सिर्फ इतना कहा कि “नॉट हैप्पी.” न कोई सख्त बयान, न इजरायल को रोकने की कोशिश. खाड़ी देशों को लगने लगा है कि दशकों से चल रहा सुरक्षा सौदा (तेल दो, सुरक्षा लो) अब टूट चुका है. कतर 2020-24 में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हथियार खरीदार था. लेकिन यह हथियार और अमेरिकी बेस, दोनों इजरायली मिसाइलों के सामने बेकार साबित हुए.
तुर्की की घबराहट
तुर्की को डर है कि अगला टारगेट वही हो सकता है. तुर्की रक्षा मंत्रालय ने कहा, “इजरायल की लापरवाहियां पूरे रीजन को तबाह कर सकती हैं.” इसी डर से तुर्की ने अपने “स्टील डोम” मिसाइल शील्ड और 5वीं पीढ़ी के फाइटर प्रोजेक्ट की रफ्तार बढ़ा दी है. तुर्की की रणनीति साफ है कि हमास को चुपचाप सपोर्ट करो, इजरायल को खुलकर धमकाओ और अमेरिका पर भरोसा मत करो.
आगे क्या होगा?
फिलहाल औपचारिक “इस्लामिक NATO” बनना मुश्किल दिख रहा है. लेकिन इसके बावजूद कुछ ट्रेंड साफ हैं. अरब लीग या OIC के बैनर तले ज्यादा संयुक्त सैन्य अभ्यास होंगे. गल्फ देश अब अमेरिका पर निर्भर रहने के बजाय तुर्की और पाकिस्तान से डिफेंस सहयोग बढ़ाएंगे. रूस और चीन भी इस मौके को कैश करने के लिए तैयार बैठे हैं.
कतर पर इजरायल के हमले ने अरब देशों को यह सिखा दिया कि अमेरिकी सुरक्षा गारंटी अब भरोसेमंद नहीं है. इसीलिए, सब मिलकर सोच रहे हैं कि एक साझा सुरक्षा ढांचा बने. लेकिन सवाल यही है कि क्या पुरानी दुश्मनियां (सुन्नी बनाम शिया, तुर्की बनाम मिस्र, सऊदी बनाम ईरान) मिट पाएंगी? अगर हां, तो ‘इस्लामिक NATO’ का सपना हकीकत में बदल सकता है. वरना, यह चर्चा भी इतिहास के पन्नों में दफन हो जाएगी.