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चीन बना लिथियम का बादशाह! भारत की EV इंडस्ट्री और ऊर्जा सुरक्षा पर मंडरा रहा बड़ा संकट


China Lithium King: 21वीं सदी की दुनिया में बैटरियां वही करती हैं जो पहले तेल करता था. और इस नए खेल में चीन ने अकेले बाजी मार ली है. माइनिंग से लेकर रिफाइनिंग, बैटरी निर्माण से लेकर EV तक, बीजिंग ने दशकों की योजना, सब्सिडी और बेहतरीन एग्जीक्यूशन के साथ ऐसा सप्लाई चेन खड़ा किया है कि कोई देश उसकी बराबरी नहीं कर सकता. आज चीन लिथियम के मामले में वही दबदबा रखता है जो कभी तेल कंपनियों का था.

China Lithium King: माइनिंग में चीन की ताकत

2026 तक चीन ऑस्ट्रेलिया को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ा लिथियम माइनर बनने वाला है. हालांकि ऑस्ट्रेलिया के पास ज्यादा रिजर्व है, चीन ने Latin America के Lithium Triangle और Africa के मिनरल बेल्ट में निवेश करके अपनी आपूर्ति सुनिश्चित कर ली है. इसका मतलब साफ है कि चीन को घरेलू खनन से काम नहीं चलेगा, विदेशों में पकड़ भी जरूरी है. सिर्फ माइनिंग से फायदा नहीं मिलता. असली पैसा आता है रिफाइनिंग से. और यही चीन ने बखूबी किया है. विश्व का लगभग 70% बैटरी ग्रेड लिथियम चीन में रिफाइन होता है. ये केमिकल प्रोसेसिंग स्टेज ही सबसे ज्यादा वैल्यू पैदा करती है.

बैटरी इंडस्ट्री और घरेलू डिमांड

चीन की बैटरी इंडस्ट्री दुनिया की सबसे बड़ी है. 2024 में उसने 1,170 GWh लिथियम-आयन बैटरियां बनाई, जो वैश्विक उत्पादन का तीन-चौथाई हिस्सा है. घरेलू EV मार्केट- 11 मिलियन कार सालाना- इसके लिए परफेक्ट है. फैक्ट्रियों को स्केल मिलता है, लागत कम होती है और दक्षता बढ़ती है. सरकार की सब्सिडी, सस्ता क्रेडिट और विशाल इंडस्ट्रियल पार्क इसे और मजबूत बनाते हैं. साफ तस्वीर ये है कि चीन सिर्फ प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहा, बल्कि नियम लिख रहा है.

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चीन की स्ट्रेटेजी- काम क्यों कर रही है?

Vertical Integration में जो माइन से लेकर EV तक पूरा चेन कंट्रोल में. Policy Backing इसमें लॉन्ग-टर्म प्लान और सब्सिडी ने निवेशकों को भरोसा दिया. Massive Scale में घरेलू EV मार्केट इतनी बड़ी कि फैक्ट्रियों को स्केल जल्दी मिल गया. Technological Shift LFP (Lithium Iron Phosphate) बैटरियों में भारी निवेश, जो सस्ती, सुरक्षित और कोबाल्ट-नीकल कम वाली हैं.

चीन का अगला कदम क्या होगा

चीन अब न केवल अपनी स्थिति बचाने की कोशिश कर रहा है, बल्कि अगली लड़ाई जीतने की भी कोशिश कर रहा है. अर्जेंटीना, चिली जैसे देशों में खनन का विस्तार कर रहा है और अफ्रीका में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहा है. सोडियम-आयन बैटरियां, ये लिथियम के विकल्प के रूप में उभर सकती हैं. पुरानी बैटरियों से लिथियम, कोबाल्ट और निकल को रिसाइकलिंग और सेकंड-लाइफ में निकालने में निवेश कर रहा है. उन्नत बैटरी तकनीक को वैश्विक निर्यात नियंत्रणों से बाहर नहीं जाने दे रहा है. एलएफपी को बढ़ावा देते हुए, चीनी बैटरी दिग्गज CATL और BYD इसे वैश्विक स्तर पर बढ़ावा दे रहे हैं.

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भारत की चुनौती

भारत EV मार्केट में तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन बैटरियों में पूरी तरह इम्पोर्ट डिपेंडेंट है. लगभग हर EV में चीन की बैटरी है. यह सिर्फ मोटर वाहन का मसला नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा और रणनीतिक कमजोरी भी है. भारत को चीन से सीखना चाहिए, जिसमें घरेलू लिथियम अन्वेषण और विदेशों में निवेश शामिल हैं. रिफाइनिंग क्षमता बढ़ाना केवल खनन तक सीमित नहीं है.

गीगाफैक्ट्री के पैमाने पर कई योजनाएं हैं, लेकिन वास्तविक पैमाने पर पहुंचना अभी दूर की बात है. बढ़ती मांग, जिसमें इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सब्सिडी, चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर और कम जीएसटी शामिल हैं. अनुसंधान एवं विकास में निवेश, जिसमें सोडियम-आयन, सॉलिड-स्टेट और बैटरी रीसाइक्लिंग में नवाचार शामिल हैं. पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन, जिसमें स्वच्छ तकनीक और सख्त दिशानिर्देश शामिल हैं.

जोखिम और चुनौतियां

भारत के पास लिथियम रिजर्व बहुत कम. उत्पादन लागत ज्यादा और पावर, जमीन और कम्प्लायंस महंगे. ग्लोबल डिपेंडेंसी में बिना मजबूत विदेशी साझेदारी आप सप्लाई शॉक से प्रभावित हो सकते हैं. नीतियों में लगातार रुकावट,stop-start प्लान से काम नहीं चलेगा.

दुनिया की EV और साफ ऊर्जा की रफ्तार अब बैटरियों पर निर्भर है. चीन ने लगभग सबकुछ कंट्रोल कर लिया है, जबकि भारत के लिए यह मौका सिर्फ सस्ती EV बनाने का नहीं, बल्कि रोजगार, आर्थिक अवसर और ऊर्जा स्वतंत्रता पाने का है. जो देश जल्दी सीखेंगे, वही भविष्य की बैटरी गेम में बाजी मारेंगे.