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करमा पर्व पर मिथिला में होता है जलहेर, राज परिवार निभा रहा सदियों पुरानी यह परंपरा


Karma Puja: पटना. झारखंड के साथ-साथ मिथिला में भी प्रकृति पूजक पर्व करमा का आयोजन वर्षों से होता आ रहा है. इस वर्ष भी आदिवासियों का प्रमुख पर्व करमा मिथिला में पूरे भक्ति भाव से मनाया जा रहा है. मधुबनी जिले के मधेपुर प्रखंड स्थित पचही डयोढ़ी में यह पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है. यहां जलहेर देखने को दूर-दूर से लोग पचही पहुंच रहे हैं. मिथिला का राज परिवार वर्षों से राजकीय पर्व के रूप में इस पर्व को मनाता आ रहा है. इस वर्ष पंडित अरुण झा ने झलहेर पद्धति से पूजा सम्पन करा रहे हैं.

जलहेर के साथ ही होता है करमा धरमा का भसान

करमा पूजा के संबंध में राज परिवार के सदस्य बाबू श्रीपति सिंह ने बताया कि भाद्र शुक्ल एकादशी जिसे यहां के लोग कर्मा धर्मा एकादशी ओ जलझुलनी एकादशी भी कहते हैं, को करमा की पूजा होती है. इस दिन यहां मेला लगा रहता है. कई लोग जो व्रत करते हैं, वो जलहेर के बाद ही प्रसाद ग्रहण करते हैं. श्रीपति सिंह कहते हैं कि संध्या में आरती के बाद करमा धरमा पोखर में नौका विहार करते हैं, इसी कारण इसका नाम जलहेर है. पोखर में नाव के ऊपर मध्य में लकड़ी के तख्थे को रखा जाता है, जिसपर भगवान करमा धरमा विराजमान होते हैं. दोनों तरफ से चाल को पकड़ के भगवान को अगरबत्ती दिखाते हुए पोखर के चारों ओर घुमाने (जलहेर खेलने) के साथ इस पूजा की समाप्ति होती है. इतिहास रहा है, इस दिन बरसात जरूर होती है. इस पूजा की अपनी अलग पद्धति है, जिसके अनुसार प्रत्येक वर्ष झलहेर का आयोजन होता है. जलहेर के दौरान ही करमा धरमा का भसान हो जाता है. खास बात यह है कि भसान पुरुष नहीं बल्कि महिला के हाथों होता है.

महाराज कुमार रमापति सिंह को मिली थी जिम्मेदारी

कर्मा धर्मा (करमा-धरमा) पूजा के आयोजन की जिम्मेदारी महाराजा माधव सिंह (राजकाल ; 1775 -1807 ) ने अपने छोटे बेटे रमापति सिंह को दे रखी थी और तब से आज तक उनका परिवार यह पर्व राजकीय पर्व के रूप में करता आ रहा है. महाराजकुमार रमापति सिंह के वंशज बाबू श्रीपति सिंह कहते हैं कि यह पर्व राज परिवार की ओर से मधेपुर डेओढी ही करता रहा है. कहा जाता है कि महाराज कुमार रमापति सिंह के बेटे बाबू पुण्यपति सिंह जलहेरि पूजा का आयोजन 1860 के आसपास मधेपुर से पचही ले आये, तब से यहीं हो रहा है. पहले तिरहुत नरेश भी इस पर्व में शामिल होने पचही आते थे. लाखों की भीड़ होती थी. बड़ा मेला लगता था. अब तो बस खानापूर्ति हो जा रही है. लोगों ने भी इसे आदिवासियों तक सिमटा दिया है. आम लोग इससे दूर होते गये. राज परिवार के सदस्य आशीष नंदन सिंह कहते हैं कि पहले ऐसा नहीं था. मैथिलीभाषाकोष (पं दीनबन्धु झा,1950) में लिखते हैं कि 1918 ई संस्करण के पृ 242 में ” जलहेरि = नौका से जलक्रीड़ा ” लिखा हुआ है, जिसमें सभी जाति के लोग शामिल होते थे. कल्याणीकोश( 1998 ; पं गोविन्द झा ) के पृ 246 में भी ” जलहेरि = नाव पर जल – विहार लिखा हुआ है. मैथिलीशब्दकल्पद्रुम( 1998 ; पं मतिनाथ मिश्र) के पृ 178 में ” जलहेर = नाव से जल भ्रमण लिखा हुआ है. इससे पता चलता है कि यह शब्द लोकभाषा का है.

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