समीर दास, सदस्य, राज्य सचिव मंडल, CPI (M) झारखंड
Chhath Puja 2025 : छठ पूजा को केवल “आस्था का पर्व” कहना इसके असली अर्थ को सीमित कर देता है. यह भारतीय समाज की उस लोकपर्व अनुष्ठान है जिसमें -लोकतांत्रिक चेतना, स्त्री-सशक्तिकरण, पारिवारिक एकता, सामाजिक समरसता और प्रकृति-सम्मान का अद्भुत संगम दिखाई देता है. यहां कोई ईश्वरभक्ति का भोंडा प्रदर्शन, कर्मकांड नहीं, बल्कि एक सामाजिक समरसता और पर्यावरणीय संतुलन का जनोत्सव है, जो सदियों से जारी क्षेत्र की सामंती और उपभोक्तावादी मूल्यों को चुनौती देता है.
ज्यादातर घरों में छठ पूजा में मुख्य साधिका महिला होती है. वह परिवार और समाज के कल्याण के लिए उपवास, संयम और तपस्या का व्रत रखती है. यहां न कोई पुरोहित होता है, न कोई मध्यस्थ. व्रती स्वयं पूरे परिवार के साथ अनुष्ठान संचालित करती है. यह स्त्री को श्रद्धा की वाहक नहीं, बल्कि शक्ति, आत्मनियंत्रण और नैतिक अनुशासन की प्रतीक बनाती है. यह पर्व भारतीय समाज में स्त्री की आत्मनिर्भर और स्वाधीन भूमिका ही नहीं अपितु उनके प्रबंधन कौशल का उत्सव है, जहां स्त्री पूजा की विषय नहीं, साधिका और संचालिका है.
यह पर्व परिवार की सामूहिकता को केंद्र में रखता है. बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक हर व्यक्ति इसमें सहभागी होता है. छठ परिवार को आत्मकेंद्रित उपभोग की संस्कृति से निकालकर सहयोग और साझेदारी की संस्कृति में बदल देता है. पूरा समाज सहभागी होता है; यह पूजा व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का रूप ले लेती है.
छठ पूजा का मूल तत्व सादगी और स्वच्छता है. प्रसाद मिट्टी के चूल्हे पर देसी सामग्री से बनाया जाता है. स्वच्छता और पर्यावरण-संवेदना इसमें आस्था के रूप में समाहित है. आज जब पूंजीवादी जीवनशैली प्रकृति के दोहन से जलवायु संकट, ओज़ोन क्षरण और पारिस्थितिक असंतुलन पैदा कर रही है, तब छठ का यह प्रकृति-संरक्षक लोकाचार आधुनिक सभ्यता के विनाशकारी रास्ते का प्रतिरोध बनकर खड़ा है.
इस पर्व में कोई पंडित या पुरोहित मध्यस्थ नहीं होता. व्रती स्वयं सूर्य और प्रकृति से प्रार्थना व संवाद करती है. यह धर्म के लोकशाहीकरण का ज्वलंत उदाहरण है, जो धार्मिक वर्चस्व को तोड़ता है और आत्मनिर्भर श्रद्धा का स्वराज्य रचता है.
छठ पूजा में न कोई मूर्ति है, न कोई प्रतीक— केवल सूर्य और प्रकृति की आराधना है. अस्त और उदयमान सूर्य को दिया गया अर्घ्य जीवन और श्रम के चक्र की स्वीकृति है. यह पूजा प्रकृति और मानव के संबंध को पुनर्स्थापित करती है और बताती है कि जीवन की स्थिरता पर्यावरणीय संतुलन व संरक्षण में ही निहित है. छठ इस अर्थ में “प्रकृति समर्थ” जन आंदोलन है, जो औद्योगिक सभ्यता और उपभोक्तावाद द्वारा संचालित पर्यावरण विनाश का विरोध करता है.
छठ पूजा जाति, वर्ग और वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रतिवाद है. एक ही घाट पर ब्राह्मण, दलित, आदिवासी, पिछड़ा, हर वर्ग का व्यक्ति समान रूप से खड़ा होता है. यह दृश्य उन सिद्धांतों पर सीधा प्रहार है, जिन्होंने सदियों तक स्त्रियों, दलितों और कमजोर तबकों को मंदिर और ईश्वर से दूर रखा. छठ उस पितृसत्तात्मक, जातिवादी व्यवस्था को मिट्टी में मिला देता है, जो मानव को मानव से अलग करती थी.
छठ का प्रसाद केवल परिवार तक सीमित नहीं रहता. यह हर आगंतुक के साथ साझा होता है, कोई भी किसी व्रती से मांगने में भी संकोच नहीं करता है. यह समरसता, समानता और सहभागिता पर आधारित समाज का प्रतीक है, जहां धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक स्थिति के आधार पर कोई भेद नहीं होता. यह “लोक समाजवाद” का सबसे जीवंत रूप है, जिसमें संसाधनों का नहीं बल्कि संवेदनाओं का साझाकरण होता है.
छठ केवल पूजा नहीं, जीवन का उत्सव है. इसके लोकगीत, सामूहिक तैयारी, सामूहिक श्रम और परस्पर सहयोग इसे किसी संकीर्ण धार्मिक अनुष्ठान से आगे ले जाते हैं. यह जीवन की सार्थकता का उत्सव है, जहां भक्ति, श्रम और आनंद एकाकार हो जाते हैं. यह पर्व समाज और प्रशासन के सहयोग से संचालित होता है. घाटों की सफाई, सुरक्षा और व्यवस्था में जनता और शासन दोनों की भूमिका होती है. यह प्रशासनिक जिम्मेदारी और लोक-भागीदारी के संतुलन का अनोखा उदाहरण है.
हालांकि कुछ शहरी क्षेत्रों में इस पर्व के स्वरूप में विकृति आई है. निजी पूलों में अर्घ्य, भव्य सजावट और आडंबरपूर्ण आयोजन छठ की मूल लोक-सादगी से विचलन हैं. इसी तरह घाटों पर सूर्य प्रतिमाओं के मंडप लगाना भी छठ की मूर्तिहीन, वैज्ञानिक और प्रकृति-केन्द्रित परंपरा से विचलन है. ये प्रवृत्तियां उस ब्राह्मणवादी प्रतीकीकरण की दिशा में जाती हैं, जो इस पर्व की लोकवैज्ञानिक आत्मा को कमजोर करती हैं.
छठ पूजा का भूगोल बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश से जुड़ा है, वही क्षेत्र जो कभी सामंती उत्पीड़न और जातिगत विभाजन का केंद्र रहे हैं. यही अचरज है कि यह पर्व उस सामाजिक मिट्टी से उभरकर लोक-समानता और सामाजिक जागृति का प्रतीक बन गया जहां पहले पूजा-पाठ पर केवल एक वर्ग विशेष का अधिकार था, वहां छठ ने “ईश्वर तक पहुँच” का अधिकार सर्वजन को सुलभ कराया. यह धर्म के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया है, जिसने समाज के हर वर्ग को समान स्तर पर खड़ा कर दिया.
छठ के घाट पर जब हर जाति, वर्ग, समुदाय, आयु और लिंग के लोग एक साथ सूर्य को अर्घ्य देते हैं, तो वह दृश्य किसी धार्मिक कर्मकांड से अधिक एक सामाजिक पुनर्संरचना का प्रतीक बन जाता है. यह मनुष्य और प्रकृति के बीच उस प्राचीन संवाद को पुनर्जीवित करता है, जो ऋग्वैदिक काल में ग्रामसभाओं के हवन प्रक्रिया में था; जिसे पूँजीवादी सभ्यता ने तोड़ दिया था.
छठ पूजा केवल भक्ति नहीं, बल्कि प्रतिरोध की संस्कृति है, एक ऐसी संस्कृति जो असमानताओं, पितृसत्ता, वर्गीय विभाजन और पर्यावरण विनाश, इन सबका प्रतिवाद करती है। यह पर्व अपने स्वरूप में सामाजिक रूप से क्रांतिकारी और पर्यावरणीय दृष्टि से प्रगतिशील है. यह प्रकृति के प्रति संवेदना, श्रम के प्रति सम्मान और समाज के प्रति उत्तरदायित्व का संदेश देता है.
छठ बताता है कि धर्म का अर्थ वर्चस्व नहीं, बल्कि लोकशक्ति का जागरण है; प्रकृति पूजा केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का संकल्प है; और सच्ची आस्था वही है, जो समाज को बराबरी, बंधुता और संतुलन की ओर ले जाए.
इस अर्थ में छठ केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि समाजवादी सहअस्तित्व, प्रकृति-समर्थ और मानवतावादी क्रांति का लोक-उत्सव है — जो हर वर्ष यह घोषणा करता है कि सूर्य केवल प्रकाश नहीं देता, वह समानता, न्याय और जीवन का स्रोत है. स्वच्छता, समरसता, समानता एकता, अखंडता और सादगी का महापर्व है सूर्य आराधना का प्रतीक छठ!