फिल्म – जटाधरा
निर्माता -प्रेरणा अरोरा और शिविन नारंग
निर्देशक -वेंकट कल्याण और अभिषेक जैसवाल
कलाकार -सुधीर बाबू ,सोनाक्षी सिन्हा,दिव्या खोंसला कुमार, शिल्पा शिरोडकर,इंदिरा कृष्णन और अन्य
प्लेटफार्म – सिनेमाघर
रेटिंग -डेढ़
jatadhara movie review :जटाधरा की कहानी केरल की राजधानी तिरूवंतरम का पद्मनाभम मंदिर से प्रेरित है. माना जाता है कि इस मंदिर के सातवें तहखाने में अपार खजाना है जिसकी रक्षा नागबंधन करते हैं। इसे खोलने की कोशिश करने पर विनाशकारी परिणाम होते हैं। केरल में आई बाढ़ उसी का नतीजा थी. जटाधरा नागबंधन से बड़ी शक्ति धनपिशाचनी की कहानी कहती है. आस्था,अन्धविश्वास और विज्ञान इन तीनों को इस फिल्म से जोड़ा गया है लेकिन कहानी ही नहीं है और जो कुछ भी परदे पर हो रहा है उससे कन्विक्शन का दूर दूर तक कोई नाता नहीं है. कुलमिलाकर इस धनपिशाचिनी की कहानी को देखना आपके धन और समय दोनों की बर्बादी है.
धनपिशाचिनी की है कहानी
फिल्म की कहानी शिवा (सुधीर बाबू) की है. वह नौकरी किसी कॉरपरेट कम्पनी में करता है, लेकिन उसकी रूचि घोस्ट हंटिंग में है. शिवा का दृढ़ विश्वास है कि आत्माएं और बुरी शक्तियां नहीं होती हैं. यह बस इंसान का डर है.शिवा को हर रात एक सपना आता है, जिसमें वह एक छोटे बच्चे पर हमला होते देखता है. इन सबके बीच उसे शहर में एक शापित घर के बारे में मालूम पड़ता है. उस घर में सोने से भरे कलश होने की बात सामने आती है लेकिन जो भी उस घर में गया है.उसकी मौत हुई है. दरअसल धन पिशाचिनी (धन की रक्षा करने वाली राक्षसी) का रहस्य उन सोने के कलशों जुड़ा है. जो घर में होने वाले ना सिर्फ सभी मौतों की जिम्मेदार है बल्कि उसका कनेक्शन शिवा और शिवा के उस सपने से भी है. आगे क्या होता है, यही कहानी है.
फिल्म की खूबियां और खामियां
फिल्म जटाधार भारतीय लोक कथाओं पर आधारित है. काला जादू और बुरी शक्तियों का हल विज्ञान की भाषा में यह फिल्म ढूंढती है.जो सुपरनैचुरल जॉनर में नया और अनूठा है, लेकिन सिर्फ कांसेप्ट अच्छा होने भर से फिल्में अच्छी बन जाती थी तो फिर क्या कहने थे. फिल्म को अच्छा बनाने के लिए कहानी और स्क्रीनप्ले अच्छा होना ज़रूरी है. जो इस फिल्म में पूरी तरह से नदारद है. फिल्म की शुरुआत उम्मीद जगाती है लेकिन उसके बाद फिल्म अलग ही मोड़ ले लेती है.फिल्म में ऐसे ऐसे सीन्स नज़र आते हैं, जो फिल्म की जरुरत नहीं थी. अलग -अलग हॉन्टेड जगहों पर शिवा का जाना. अपनी लव लाइफ (दिव्या खोंसला कुमार )मिलना ये सब फिल्म को रोचक नहीं बल्कि और बोझिल बनाता है. इंटरवल से पहले फिल्म फ्लैशबैक में जाती है. उससे कुछ रोचकता कहानी से जुड़ती है, लेकिन कुछ ही मिनटों में औंधे मुंह गिर जाती है और लचर क्लाइमेक्स के साथ आखिरकार फिल्म का अंत हो जाता है. कहानी और स्क्रीनप्ले ही नहीं तकनीकी पहलुओं में भी फिल्म कमजोर है. सुपरनैचरल जॉनर में वीएफएक्स इसकी जान होनी चाहिए लेकिन में वह भी प्रभावी नहीं बन पाया है. फिल्म की शुरुआत में एआई जेनेरेटेड पांच मिनट का सीन इंस्टाग्राम रील की याद दिलाता है. एक्शन सीन्स में गिरते हुए खंभे साफ़ नज़र आते हैं कि थर्माकोल से बने हुए हैं. फिल्म की एडिटिंग भी कमजोर रह गयी है.सीन कहीं से भी शुरू हो जा रहा है. अचानक फिल्म में आइटम सांग आ जा रहा है.गीत संगीत की बात करें तो शिव श्रोत्रम को छोड़कर कोई भी ट्रैक याद नहीं रह जाता है.बैकग्राउंड म्यूजिक भी सिर्फ शोर ही करता है.
कलाकारों का अभिनय भी कमजोर
अभिनय पक्ष की बात करें तो सुधीर बाबू की कोशिश अच्छी रही है लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले उन्हें कुछ खास करने नहीं देता है.सोनाक्षी सिन्हा ने इस फिल्म से तेलुगु फिल्मों में अपनी शुरुआत की है,लेकिन उनका अभिनय बहुत ज्यादा लाउड हो गया है.अभिनय के नाम पर आँखें दिखाना, चिल्लाना और दांत किटकिटाना ही उन्होंने किया है.शिल्पा शिरोडकर का किरदार बेहद कमजोर है. उन्होंने यह फिल्म क्यों की यह बात फिल्म को देखते हुए महसूस होती है.दिव्या खोंसला कुमार सहित बाकी के किरदारों के लिए भी फिल्म में करने को कुछ खास नहीं था.