फिल्म -हक
निर्देशक – सुपर्ण वर्मा
कलाकार -यामी गौतम, इमरान हाशमी,वर्तिका सिंह,शीबा चड्ढा,परिधि शर्मा. दानिश हुसैन,असीम हटंगड़ी और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग – साढ़े तीन
haq movie review : हक कोर्टरूम ड्रामा फिल्म है, जो सत्य घटना से प्रेरित है.यह फिल्म साल 1985 में शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले पर बनी है. फिल्म की शुरुआत में ही यह बता दिया जाता है और ये भी कि फिल्म जिग्ना वोहरा की किताब बानो भारत की बेटी पर आधारित है. यह इतना चर्चित केस रहा है कि चार दशक बाद भी हर कोई इससे परिचित है.कहानी और किरदार से वाकिफ होने के बावजूद फिल्म पूरी तरह से आपको बांधे रखती है. इसके श्रेय निर्देशक सुपर्ण वर्मा के शानदार निर्देशन ,लेखिका रेशु नाथ के जबरदस्त लेखन और अभिनेत्री यामी गौतम के दमदार परफॉरमेंस को जाता है. ये फिल्म मनोरंजन करने के साथ -साथ सोचने को भी मजबूर करती है.
महिला सशक्तिकरण की कहानी
फिल्म की कहानी शाजिया बानो (यामी गौतम )की है. शुरुआत उसी से होती है.वह एक इंटरव्यू मेंअपनी जर्नी सांझा करती है.कहानी साठ के दशक में पहुंच जाती है ,जब वकील अहमद खान (इमरान हाशमी )से उसका निकाह होता है. शाजिया इस निकाह से बेहद खुश हैं. एक के बाद एक तीन बच्चे होते हैं.जिंदगी अच्छे से कट ही रही होती है कि मालूम पड़ता है अहमद ने दूसरा निकाह (वर्तिका सिंह )कर लिया है.अहमद इस निकाह को लेकर शाजिया से झूठ बोलता है कि दूसरी पत्नी घर के कामों और बच्चों की देखभाल में उसकी मदद करेगी ,लेकिन जल्द ही अहमद का झूठ सामने आ जाता है.अहमद की अनदेखी से दुखी होकर शाजिया बच्चों के साथ अपने मायके चली जाती है. अहमद उसे मनाने नहीं आता है. हां शुरुआत में बच्चों की देखभाल के वह 400 रुपये भिजवाता रहता है,लेकिन कुछ समय बाद वह बंद हो जाता है. शाजिया कोर्ट के जरिये अपने गुजारे भत्ते की मांग करती है,लेकिन अहमद खान तीन तलाक लेकर उससे रिश्ता ही खत्म कर लेता है. जिससे गुजारे भत्ते की मांग भी खत्म हो जाए.अहमद की यह दलील होती है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ उसे ये हक़ देता है,लेकिन शाजिया के हक़ का क्या. धर्म के ठेकेदार शाजिया को उसका हक नहीं देते हैं. वह एक बार फिर अदालत में अपने हक़ की गुहार लगाती है , लेकिन अदालत में अहमद अपना पक्ष रखते हुए कहता है कि सेक्युलर लॉ के आधार पर शरीयत का मज़ाक बनाया जा रहा है.हम देखते नहीं रह सकते हैं. इसे बचाना हमारा फ़र्ज़ है. क्या शाजिया को उसका हक मिलता है. फ़िल्म आगे की वही कहानी है .
फ़िल्म की खूबियां और खामियां
हक़ के ट्रेलर रिलीज के बाद से ही यह चर्चा शुरू हो गयी थी कि फिल्म में क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाम भारतीय संविधान की लड़ाई होगी,लेकिन यह फिल्म लैगिंक समानता की लड़ाई लड़ती है.महिलाओं के हक़ की बात करती हैं.राइटर्स सुपर्ण और रेशु नाथ की तारीफ इसलिए भी बनती है कि उन्होंने एक बार भी फिल्म में ये नहीं बताया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ किसी भी तरह से भारतीय कानून का विरोधाभासी है बल्कि शाजिया का किरदार कई जगहों पर इस बात को दोहराती है कि कुरान ने भी तीन तलाक को गलत माना है.वह समझाती है कि कुरान को लोगों ने गलत तरीके परिभाषित किया है. फिल्म में संवाद भी है कि कुरान रखने,पढ़ने और समझने में बहुत फर्क होता है.”इन्होने कुरान पढ़ा नहीं है और शरीयत पर बोल रहे हैं.” फिल्म आखिरी में लड़कियों की शिक्षा पर इकरा शब्द जोड़कर जोर देती है ताकि वह अपना सही गलत खुद समझ सकें. शाजिया का किरदार कई मौकों पर पितृसत्ता सोच वाले समाज को चुनौती भी देती है. फिल्म कुल मिलाकर विषय के साथ पूरी संजीदगी के साथ न्याय करती है. कोर्टरूम ड्रामा को मेलोड्रामा ना बनने देना निर्देशक सुपर्ण वर्मा की खासियत है. इस फिल्म के भी हर फ्रेम में वह दिखाया गया है. बेवजह का चीखना चिल्लाना नहीं दिखाया है.फिल्म बहुत ही खास तरीके से अपनी बात को रखती है. दोनों पक्षों को रखती है. फिल्म के संवाद कहानी और किरदार को एक अलग ही आयाम देते हैं. कई संवाद आपके दिल को छू जाते हैं ,तो कुछ आपको तालियां बजाने को भी मजबूर करते हैं.”हैदराबाद के निजाम के कुत्तों तक को गुजारा भत्ता दिया गया है लेकिन मुस्लिम औरतों को उनका गुजारे भत्ते का अधिकार नहीं मिल सकता है”. “मुसलमान औरत नहीं. हम हिन्दुस्तान की मुसलमान औरत है”जैसे संवाद फिल्म को मजबूती देते हैं.फिल्म की शूटिंग रियल लोकेशन पर हुई है.सिनेमेटोग्राफी कहानी साथ न्याय करती है. गीत संगीत औसत है.फिल्म में कुछ खामियां भी रह गयी हैं. फिल्म थोड़ी स्लो रह गयी है. समाज में किस तरह से शाजिया ने तिरस्कार झेला है. इस पहलू को थोड़ा और दिखाने की जरूरत थी.इसके साथ ही शाह बानो के केस में उस वक़्त के तत्कालीन सरकार के फैसले को दिखाया जाना चाहिए. इससे फिल्म को और गहराई मिलती थी. शायद जोखिम की वजह से मेकर्स ने ये रिस्क नहीं लिया हो लेकिन यही पहलू इस फिल्म को मास्टरपीस बनने से रोक देता है क्योंकि तीन तलाक से प्रभावित मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने में सुप्रीम कोर्ट के इस जजमेंट के बावजूद कई वर्ष और अदालती मामले में लगे थे.
यामी गौतम के करियर का बेस्ट परफॉरमेंस
अभिनेत्री यामी गौतम ने शाजिया बानो की भूमिका में अपने कैरियर का बेस्ट परफॉरमेंस दिया है. अपने किरदार से जुड़े दर्द ,बेबसी और हिम्मत को उन्होंने हर फ्रेम में आत्मसात किया है. फिल्म के क्लाइमेक्स में उनका मोनोलॉग याद रह जाता है,तो तीन तलाक के बाद उनकी बेबसी वाला सीन दिल को छू जाता है.इमरान हाशमी इस फिल्म में नेगेटिव किरदार में है लेकिन हिंदी सिनेमा के चित परिचित नेगेटिव किरदार से उनका किरदार बिलकुल अलग है. फिल्म में उन्होंने भी अपनी चमक बखूबी बिखेरी है.दानिश हुसैन,असीम हटंगड़ी और शीबा चड्ढा ने भी अपने अपने परफॉरमेंस से छाप छोड़ी है.बाकी के किरदार भी अपनी -अपनी भूमिकाओं में न्याय करते हैं.