भारत सरकार ने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के लिए फ्लू गैस डी-सल्फराइजेशन (एफजीडी) नियमों में महत्वपूर्ण बदलाव किया है। इस निर्णय से न केवल बिजली की कीमतों में कमी आएगी, बल्कि आम उपभोक्ताओं को भी सीधा लाभ मिलेगा। सरकार का मानना है कि यह कदम पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक जरूरतों के बीच एक स्मार्ट संतुलन स्थापित करता है। इस फैसले को डेटा और वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर लिया गया है। इस कारण यह फैसला पर्यापवण के प्रति जिम्मेदार और उपभोक्ता हितों को प्राथमिकता देने वाला है।
क्या है नया नियम ?
साल 2015 में सरकार ने सभी कोयला आधारित इलेक्ट्रिसिटी प्लांट्स में एफजीडी सिस्टम लगाना अनिवार्य किया था। यह सिस्टम कोयले से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) गैस को कम करता है, जिसे वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण माना जाता है। वहीं, नए नियमों के तहत अब केवल उन संयंत्रों में एफजीडी सिस्टम लगाना जरूरी होगा जो 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित हैं या अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों में हैं। इससे देश के लगभग 79% कोयला प्लांट इस शर्त के दायरे से बाहर आ जाएंगे और इस नियम से मुक्त रहेंगे। इसका मतलब है कि ये प्लांट्स बिना एफजीडी सिस्टम के काम कर सकेंगे, जिससे उनकी परिचालन लागत कम होगी।
इस फैसले के पीछे क्या है कारण?
सरकार का कहना है कि यह नीतिगत बदलाव कई वैज्ञानिक अध्ययनों और शोधों के आधार पर किया गया है। दिल्ली आईआईटी, सीएसआईआर-एनईईआरआई और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज (एनआईएएस) की रिपोर्ट्स से पता चला है कि भारत में ज्यादातर कोयले में सल्फर की मात्रा 0.5% से कम है, जो अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। इसके अलावा, देश के अधिकांश हिस्सों में सल्फर डाइऑक्साइड का स्तर 3-20 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच है, जो राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक (80 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से काफी नीचे है। शोध में यह भी पाता गया कि अगर सभी संयंत्रों में एफजीडी सिस्टम लगाए जाते, तो 2025 से 2030 के बीच 6.9 करोड़ टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन होता। यह अतिरिक्त उत्सर्जन चूना पत्थर की खदानों और एफजीडी सिस्टम को चलाने के लिए जरूरी अधिक बिजली की खपत के कारण होता। इसके साथ ही, भारत के बिजली संयंत्रों की ऊंची चिमनियां और अनुकूल मौसमी परिस्थितियां सल्फर डाइऑक्साइड को हवा में फैलने में मदद करती हैं, जिससे इसका प्रदूषण प्रभाव कम रहता है।
सभी को मिलेगा लाभ
नए नियमों से बिजली उत्पादन की लागत में प्रति यूनिट 25-30 पैसे की कमी आने की संभावना है। इस लागत में कमी का सीधा फायदा उपभोक्ताओं को उनके बिजली बिलों में दिखेगा। इसके अलावा पहले से ही आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को भी इस नीति से राहत मिलेगी। इससे सरकार का बिजली सब्सिडी पर होने वाला खर्च भी कम होगा, जिससे सरकारी खजाने पर बोझ घटेगा। पहले अनुमान लगाया गया था कि सभी संयंत्रों में एफजीडी सिस्टम लगाने की लागत 2.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक होगी, यानी प्रति मेगावाट 1.2 करोड़ रुपये। इतना ही नहीं, एक सिस्टम लगाने में 45 दिन तक का समय लगता है, जिससे बिजली उत्पादन और ग्रिड स्थिरता पर भी असर पड़ता है। इस खर्च और समय की बचत से बिजली सस्ती और सुलभ होगी।
वैश्विक पर्यावरण नीति के अनुरूप है कदम
भारत सरकार का यह कदम वैश्विक पर्यावरण नीतियों के अनुरूप है। अमेरिका, यूरोप और चीन जैसे देश भी अब क्षेत्रीय जरूरतों के आधार पर प्रदूषण नियंत्रण के नियम बना रहे हैं। चीन ने 2004 से 2012 के बीच बड़े पैमाने पर एफजीडी सिस्टम लगाए थे, लेकिन अब वह बारीक प्रदूषक कणों (PM2.5) को कम करने और सिस्टम की समग्र दक्षता पर ध्यान दे रहा है। भारत की नई नीति भी उन क्षेत्रों पर केंद्रित है जहां प्रदूषण की समस्या गंभीर है, ताकि संसाधनों का सही उपयोग हो और अनावश्यक खर्च से बचा जा सके।
पर्यावरण संरक्षण के प्रति है प्रतिबद्ध
सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह नियमों में ढील नहीं, बल्कि डेटा और तथ्यों पर आधारित एक स्मार्ट नीति है। पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकार कई कदम उठा रही है। सबसे पहले, अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों में रियल-टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम को मजबूत किया जा रहा है ताकि प्रदूषण के स्तर पर लगातार नजर रखी जा सके। इसके अलावा, बिजली संयंत्रों में धूल हटाने के उपायों को और प्रभावी बनाया जा रहा है। इसके साथ ही, सरकार नवीकरणीय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) के उपयोग को बढ़ाने के लिए ग्रिड को मजबूत करने पर काम कर रही है। इन सभी कदमों से पर्यावरण संरक्षण को बल मिलेगा, लेकिन यह काम लक्षित और प्रभावी तरीके से होगा।
क्या कहते हैं आलोचक और विशेषज्ञ?
कुछ आलोचकों का मानना है कि इस तरह के बदलाव से स्वच्छ हवा के लक्ष्यों को हासिल करने की गति धीमी हो सकती है। उनका कहना है कि सल्फर डाइऑक्साइड से होने वाला प्रदूषण फेफड़ों और हृदय संबंधी बीमारियों का कारण बन सकता है। हालांकि, सरकार और उद्योग विशेषज्ञ इस नीति को ‘वास्तविकता-आधारित नियमन’ मानते हैं। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि यह कदम पीछे हटना नहीं, बल्कि सबूतों पर आधारित एक स्मार्ट और प्रभावी दृष्टिकोण है। उद्योग विशेषज्ञों ने भी इस फैसले का स्वागत किया है। एक प्रमुख पब्लिक सेक्टर यूटिलिटी के वरिष्ठ कार्यकारी ने कहा, ‘यह एक तर्कसंगत और विज्ञान आधारित कदम है, जो अनावश्यक लागत से बचाता है और नियमों को वहां लागू करता है जहां इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।’
सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जाएगा नियम
यह नया नियम जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में एमसी मेहता बनाम भारत सरकार मामले में पेश किया जाएगा। इस केस में एफजीडी नियमों की समयसीमा और उनके लागू करने की प्रक्रिया पर चर्चा हो रही है। सरकार का कहना है कि यह नीति पर्यावरण संरक्षण और उपभोक्ता हितों के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण को दर्शाती है।
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