Kathak Dancer Emotional Story : 12 साल के आशीष को एक दिन दादा ने बुरी तरह पीटा, जिससे वह बहुत रोए, लेकिन उनके सपने नहीं टूटे. घर के पास गणेश मंदिर में अक्सर कथक कार्यक्रम होते थे. आशीष घर लौटकर घंटों उसी तरह नृत्य की प्रैक्टिस करते. वक्त बीतता गया और दादा की डांट अब स्कूल तक पहुंच चुकी थी. डांस प्रतियोगिताओं में आशीष कई बार जीते, लेकिन क्लास के बच्चे उन्हें ‘नचनिया’ कहकर चिढ़ाते. घर से बाहर निकलते या स्कूल लौटते समय लोग उन्हें ‘श्रीदेवी’ बुलाते, फिर भी आशीष ने हार नहीं मानी और नृत्य का अभ्यास जारी रखा. आइए जानते हैं आशीष के संघर्ष की कहानी.
आशीष ने प्रभात खबर डॉट कॉम से बात की. उन्होंने कहा कि बचपन से संघर्ष देखा. इसके बाद भी कभी कमजोर नहीं पड़ा. आशीष बताते हैं कि वो नृत्य में ऐसे रम गए थे कि उन्हें सिर्फ अपनी मंजिल ही दिखती थी. कई बार बड़े रिश्तेदारों के यहां शादी में जाते तो वो अपनी दादी के साथ एक कमरे में ही रुकते. वही खाने पीने का आ जाता था. उन्हें बाहर नहीं जाने दिया जाता था. ऐसा इसलिए कि शायद उनके पास उन बड़े लोगों के हिसाब का पहनावा नहीं होता था.
आशीष के जन्म से परिवार में थी खुशी
आशीष सिंह के दादा स्व राम प्रसन्न सिंह एक बड़े व्यापारी थे. आचार मुरब्बे का बड़ा कारखाना गोला दीनानाथ ( वाराणसी) में था. हालांकि कुछ कारण से कारोबार हाथ से चला गया. इस वजह से राजा से रंक जैसी स्थिति हो गई. आशीष बहुत वर्षों के बाद अपने माता–पिता को प्राप्त हुए थे, इस खुशी में दादी के बहन के बेटे गायक सुनील सिंह जी के द्वारा संगीत का आयोजन किया गया. इसमें बागेश्वरी देवी, सुनील सिंह, कथक नृत्यांगना श्रीमती सरला नारायण सिंह जी ने अपनी प्रस्तुतियां दीं. नारायण सिंह ने आशीष को अपने गोद में लेकर होली नृत्य किया, जिससे आशीष के अंदर कथक नृत्य का बीजा रोपण हुआ. जैसे–जैसे बड़े होते गए नृत्य उनकी पहली पसंद बन गया. इससे दादा नाराज हो गए.
नृत्य के प्रति जुनून ने आशीष को रुकने नहीं दिया
सीखने की ललक ने ही आशीष को बनारस में पद्म विभूषण पंडित बिरजू महाराज जी की शिष्या श्रीमती संगीता सिन्हा जी के पास पहुंचाया. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से भी कथक नृत्य में बैचलर्स और मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की. पंडित बिरजू महाराज की के पास कथक कार्यशाला के माध्यम से कथक सीखा. अपने घर कबीर चौरा से बी, एच ,यू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) जो लगभग 6 किलोमीटर दूर था, कई बार पैदल भी जाते थे ताकि घर से मिले पैसे को वो बचा सके. या कभी किसी से लिफ्ट लेकर आते–जाते और घंटों नृत्य का अभ्यास करते.
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आशीष का जीवन कठिन दौर से गुजर रहा था. इन सब चीजों के बीच उन्होंने 10 जून 2015 को अपने पिता को खो दिया. वे बताते हैं कि उस समय बड़ी ही मुश्किल घड़ी थी पर भगवान की कृपा से कट गई. उन्होंने बताया कि एक स्कूल में कोरियोग्राफर के रूप में बुलाया गया जहां से कुछ पैसे मिले जिससे वे वृंदावन धाम पहुंच गए. इसके बाद बाकी का जीवन वहीं बिताने का निर्णय लिया.
” नृत्य मंजरी दास” कहलाने लगे आशीष
घर वापस आने के कुछ महीने के बाद ही आशीष वापस वृंदावन पहुंचे और वहीं रहने लगे. नृत्य साधना को देख वहां आशीष को ” नृत्य मंजरी दास” का नाम मिला. तब से आशीष सिंह “नृत्य मंजरी दास” कहलाने लगे. आशीष कहते है जो संघर्ष उन्होंने जीवन में देखे वो आज की युवा पीढ़ी न देख सके इसलिए वे कथक कार्यशाला के माध्यम से बच्चों को कथक नृत्य की शिक्षा प्रदान करते हैं. कहीं नॉर्मल रजिस्ट्रेशन फीस रखकर और कहीं फ्री कथक कार्यशाला का आयोजन कर अपनी भारतीय संस्कृति का का प्रचार वे कर रहे हैं. आशीष कहते है जीवन में अगर आप अपने जैसा किसी को बना सके तो आपका जीवन सार्थक है.