एक जुर्म में दोषियों को अलग-अलग नहीं हो सकती फांसी, कानून का बेजा फायदा उठा रहे निर्भया कांड के चारों दोषी
नई दिल्ली । मृत्युदंड की सजा पाए निर्भया दुष्कर्म कांड के दोषियों को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग उठ रही है। दूसरी ओर, चारों दोषी कानूनी विकल्प में देरी का हर हथकंडा अपना रहे हैं। वे एक-एक कर अर्जी देते हैं ताकि जब तक हो सके मौत टली रहे। ऐसे में एक वर्ग कहने लगा है कि अगर चार में से एक दोषी के सारे कानूनी विकल्प खत्म हो चुके हैं तो पहले उसे ही फांसी दे दी जाए, लेकिन अगर परंपरा और कानूनी स्थिति देखी जाए तो एक जुर्म में सजा पाए सभी दोषियों को एक साथ फांसी दी जाती है।
पूर्व में एक केस में एक ही अपराध में तीन सहअभियुक्तों को अलग-अलग सजा हो गई थी
अलग-अलग फांसी नहीं दी जाती। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका कारण है कि मृत्युदंड के मामले में किसी भी स्तर पर किसी भी दोषी के साथ अन्याय की आशंका न रहे। एक मामला ऐसा हो चुका है, जिसमें एक जुर्म के दोषी तीन लोगों को अलग-अलग सजा मिली। एक को फांसी दे दी गई, दूसरे की फांसी सुप्रीम कोर्ट में अपील के दौरान माफ हो गई और तीसरे की दया याचिका जब राष्ट्रपति ने खारिज कर दी और उसका डेथ वारंट जारी हो गया तब सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में मामला आया और कोर्ट ने फांसी रोकने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने हरबंस सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में 1982 में दिए गए उस फैसले में कहा है कि फांसी की सजा के किसी भी मामले में फांसी तामील करने से पहले जेलर बाकी दोषियों के मामले की स्थिति जांचेगा। अगर बाकी दोषियों की फांसी माफ हो चुकी है तो तत्काल यह बात उच्च अथॉरिटी और संबंधित अदालत के संज्ञान में लाई जाएगी।
उस फैसले की कानूनी व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि जेलर फांसी देने से पहले चेक करेगा कि क्या किसी सह दोषी की फांसी माफ हो चुकी है और उसकी जानकारी कोर्ट को देगा। इसका मतलब यह भी निकलता है कि सह दोषी की दया याचिका पर आने वाले आदेश का असर दूसरे अभियुक्त के केस पर भी प़़डेगा यानी जेलर को फांसी देने से पहले संबंधित अदालत को यह बताना प़़डेगा कि मामले के बाकी दोषियों की दया याचिका अभी लंबित है।